NITI Aayog : देश में सिर्फ 5% आबादी ही गरीब? क्या गरीबी मुक्त हो जाएगा भारत?
NITI Aayog : ये सही है दोस्तों जब गरीब को ऊपर नही उठा सकते तो मापदंड को ही गिरा दो। गरीब खुद ब खुद ऊपर आ जायेगा। जी हाँ देश का नीति आयोग दावा कर रहा है देश में गरीबी 5% रह गई है एक यही सवाल है जो देश में हर तरफ गूंज रहा है। लेकिन क्या करें, देश में चुनाव है इसलिए शासन की मशीनरी मिशन मोड पर नए-नए तथ्यों के साथ सामने आ रही है। देश में गरीब की चिंता में सभी घुले जा रहे हैं। सरकार का पुर्जा-पुर्जा देश में खुशहाली की तस्वीर बयां करने के लिए एक से बढ़कर एक दावे करता नजर आ रहा है।
जमीनी हकीकत से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली में खूंटा गाड़ने को आतुर किसानों को इस बार दिल्ली से 200 किमी दूर ही रोक दिया गया है जबकि पड़ोस में उत्तर प्रदेश के नौजवान एक अदद नौकरी की आस में हाल ही में 45 लाख से भी अधिक संख्या में प्रदेश के विभिन्न परीक्षा केंद्रों में उपस्थित होने की होड़ में यातायात व्यवस्था को चरमरा कर रख दिए थे।
पर मोदी सरकार में तो आंकड़ों का खेल ही सुखद अहसास देने वाला साबित हुआ है अन्यथा शहर हो या गांव हर जगह बुरा हाल है। पिछले दिनों ही देश के सामने आंकड़ों का एक गट्ठर पेश किया गया था जिससे देश को पता चला कि 2013 से 2022 के बीच में करीब 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से उबार लिया गया है और अब मात्र 11% लोग ही देश में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन बिताने को मजबूर हैं जिन्हें जल्द ही मोदी जी के नेतृत्व में अपने तीसरे कार्यकाल में बाहर निकाल लिया जायेगा। लेकिन शायद यह काफी नहीं था जो अब नीति आयोग खुलासा कर रहा है
उम्मीद की जानी चाहिए कि नीति आयोग के द्वारा चुनाव की घोषणा से पहले-पहले एक और खुलासा कर दिया जाये जिसमें बाक़ी के बचे 5% लोगों को भी गरीबी से मुक्त किये जाने की जानकारी मिल जाए।
आखिर, मात्र तीन महीनों में क्या बदल गया? एक दशक की सत्ता के बाद 80 करोड़ गरीबों के आंकड़े पर शर्म आ रही है? या फिर 5% के अलावा बाकी लोगों को सभी योजनाओं से बाहर करने की तैयारी है? नीति आयोग के अनुसार देश में गरीबी घटकर 5% से भी कम रह गई है तो फिर यह अस्सी करोड़ लोग भारत में कौन हैं जो आज भी पांच किलो राशन पर जिंदा हैं ? या तो नीति आयोग झूठ बोल रहा है या अनाज घोटाला हो रहा है ! 73 करोड को मुफ्त राशन देकर क्यों देश का पैसा फूंक रहे हैं? सिर्फ 2024 चुनाव में वोट पाने के लिए?
नोटबंदी, जीएसटी और कोविड महामारी कई करोड़ लोगों को गरीब बना गई
अजीब बात है न दोस्तों कहां तो 2017-18 में अखबार ये बता रहे थे कि देश में बेरोजगारी 45 वर्षों के अपने चरम पर पहुंच गई है पार्ले-जी बिस्किट का पैक दिन-प्रतिदिन छोटा होता गया। इसी प्रकार विभिन्न खाद्य वस्तुओं एवं सौंदर्य प्रसाधन की वस्तुओं की औसत साइज़ के बजाय शैसे का चलन बढ़ गया। मैगी के छोटे-छोटे पाउच से लेकर दूध के दही के पाउच भी 500 एमएल से घटकर उपभोक्ता की जेब के हिसाब से आकार लेने लगे।
लेकिन हमें धन्यवाद देना चाहिए नीति आयोग और उनके सीईओ बी. वी. आर. सुब्रह्मण्यम (NITI Aayog CEO) का जो खुलकर दावा पेश कर रहे हैं कि देश में उपभोक्ता खपत कम होने के बजाय दुगुने से भी अधिक हो चुकी है। उससे भी अधिक चौंकाने वाली बात तो ये है कि शहरों के बजाय ग्रामीण क्षेत्र में यह चमत्कार सिर चढ़कर बोल रहा है। जहां पर खपत में ढाई गुना वृद्धि का दावा नीति आयोग कर रहा है। सुब्रह्मण्यम जी तो यहां तक दावा कर रहे हैं कि हाल के वर्षों में ग्रामीण एवं शहरी खपत में भी जो खाई थी उसमें तेजी से कमी आ रही है।
नीति आयोग ने ये निष्कर्ष NSSO के ‘पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण-2022-23’ की रिपोर्ट के आधार पर निकाले हैं। इन आंकड़ों को NSSO की ओर से अगस्त 2022- जुलाई 2023 के बीच सर्वेक्षण के आधार पर निकाला गया है। इसमें देश की जनसंख्या को 12 अलग-अलग आर्थिक श्रेणियों में रखा गया है। सबसे निचली पायदान पर 5% लोग हैं जिनमें मासिक खपत ग्रामीण 1,441 रूपये तो शहर में 2,087 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति महीने आंकी गई है।
इसके बाद 5 से 10% और फिर 10-10% जनसंख्या के लिए खपत व्यय का आंकड़ा दिया गया है। सबसे अमीर 95%-100% वर्ग का खर्च ग्रामीण 10,581 रुपये और शहर 20,846 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीने का आकलन किया गया है। पहली नजर में ही 5% सबसे अधिक कमजोर आर्थिक वर्ग का आंकड़ा चौंकाने वाला लगता है। मान लेते हैं कि गरीबी रेखा में रहने वाले ग्रामीण की यदि प्रति व्यक्ति खपत 1,441 रुपये है तो इसका अर्थ हुआ कि 4 सदस्यों वाले परिवार की मासिक आय कम से कम 5,800 रुपये अवश्य होगी।
नीति आयोग के मुताबिक गांवों में खुशहाली का आलम
जबकि सच्चाई ये है कि देश में मनरेगा 200 रुपये के आसपास है। देश में रोजगार के अधिकार के रूप में मनरेगा की शुरुआत की गई थी जिसमें वर्ष में न्यूनतम 100 दिन रोजगार की गारंटी का प्रावधान है लेकिन औसत 30 दिन से अधिक नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र में लगातार मनरेगा के तहत काम की मांग बनी हुई है, लेकिन राज्यों को फंड मुहैया नहीं कराया जा रहा है। अब इसमें सवाल ये उठता है क्या दिन का 60 रुपये से ज़्यादा कमाने वाला आदमी ग़रीब नहीं है? फ़र्ज़ करिए कोई 63 रुपये कमा रहा है तो वो अमीर है? 63 रुपये माने महीने का 1890 रुपये. अब कोई बताने वाला हो NSSO यह आंकड़ा किस आधार पर पेश कर रहा है?
रिपोर्ट की एक और ज़रूरी बात ये भी है कि शहरों की तुलना में गांव आगे बढ़ रहे हैं. शहरी आय 2.5 गुना बढ़ी है वहीं, ग्रामीण आय 2.6 गुना. मगर ख़र्च का पैटर्न बदला है. मासिक खपत में भोजन का हिस्सा घट गया है. गांवों में 2011-12 के 53% घटकर 46.4% रह गया है और शहरों में 42.6 फ़ीसदी से घटकर 39.2 फ़ीसदी. दूसरी तरफ़, ग़ैर-खाद्य खपत 47% से बढ़कर 53.6% हो गई है. कहने का मतलब ये है कि गांव-शहर का जो आदमी अपने महीने के ख़र्च से खाने-पीने पर जो पैसा ख़र्चता था वो लगातार कम हुआ है. कपड़े, मनोरंजन, गैजेट्स, गाड़ी और अन्य चीज़ों पर ख़र्च बढ़ गए हैं.,,लोग आवाजाही पर अच्छा-ख़ासा पैसे ख़र्च कर रहे हैं.दो दशकों में 4.2% से बढ़कर 7.6% हो गया है.
पिछले सर्वे के बाद से शहरी और ग्रामीण परिवारों की आय तो बढ़ी है ख़र्च भी तेज़ी से बढ़ा है लेकिन ये भी संकेत मिले हैं कि अमीर और ग़रीब के बीच ,,खाई चौड़ा रही है. किसी परिवार के आर्थिक स्तर का सबसे ज़रूरी संकेतक मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय (MPCE) है. ,किसी आदमी का एक महीने का औसत ख़र्च. सर्वे के मुताबिक़, निचले 5% लोग दिन भर में 48 रुपये ख़र्चा कर रहे हैं और शहरों में 69.5 रुपये वहीं, शीर्ष 5% दिन का औसतन 352.7 रुपये और शहरों में 694.8 रुपये ख़र्च रहे हैं.
दोस्तों एक बात तो तय है। मोदी सरकार भारत की इमेज को विश्व की सबसे तेज विकसित होने वाली अर्थव्यस्था बना रही है। ऐसे में 20-25 करोड़ लोग यदि गरीबी की रेखा में नजर आते हैं तो अच्छा नहीं लगता और सरकार की परफॉरमेंस भी बिगड़ती है। हाल ही में 25 करोड़ लोगों को मल्टी पावर्टी इंडेक्स की मदद से बाहर निकाला गया था। अब NSSO के नवीनतम आंकड़े 6 करोड़ अतिरिक्त भारतीयों को गरीबी की रेखा से निकालने में सफल रहे हैं।
भला हो हमारे देश के कॉरपोरेट्स का जिन्हें पिछले 7 वर्षों से नजर ही नहीं आ रहा कि देश में उपभोक्ता अपनी खपत को दुगुना और गांव में तो ढाई गुना बढ़ा चुके हैं। मोदी सरकार ने देश में कॉर्पोरेट के द्वारा नए निवेश और उद्योग लगाने के लिए ही कॉर्पोरेट टैक्स में भारी छूट दी थी, जिसके चलते हर वर्ष कॉर्पोरेट 2 लाख करोड़ रुपये की मुनाफावसूली मुफ्त में कर रहा है। लेकिन वित्त मंत्री के तमाम अपील के बावजूद देश का कॉर्पोरेट खपत न होने का बहाना बनाकर निवेश से लगातार कन्नी काट रहा है।
ऐसे में लाख टके का सवाल है कि या तो खपत वृद्धि के बारे में सरकारी आंकड़े झूठे हैं या कॉर्पोरेट धोखा दे रहा है या फिर बिना उत्पादन के ही भारत के आम लोग वर्चुअल खपत में इजाफा कर देश की अर्थव्यस्था में अपना योगदान दे रहे हैं। अब यह बात न तो हमारे देश की मीडिया बताने जा रही है और न ही नीति आयोग, लेकिन 2024 आम चुनाव में मोदी सरकार, एक बार फिर से का दावा तो निश्चित ही मजबूत होने जा रहा है। आपको क्या लगता है अपनी राय कमेन्ट कर जरूर बताएँ