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क्या Media हो गई है सरकार के अधीन ?

Media: दोस्तों आज देश और दुनिया में मणिपुर की साम्प्रदायिक हिंसा, महिला उत्पीड़न और,,,, वहाँ की सत्ता की ,,,कायरता प्रमुखता में है। ,,लेकिन ,,दुर्भाग्य से हमारा मीडिया और हमारी संसद,, मणिपुर के नाम से बिदकती है।,,, मणिपुर हिंसा को तीन महीने होने जा रहे हैं,,, लेकिन सरकार आज भी संसद में ,,चर्चा को तैयार नहीं है। ,,पूरा विपक्ष सदन में मणिपुर पर ,,प्रधानमंत्री के बयान की मांग कर रहा है,,, लेकिन सरकार तैयार नहीं है।

मणिपुर से ज्यादा महत्वपूर्ण ज्ञानवापी मस्जिद का मामला

दोस्तों प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं का ,,,कवरेज करने के लिए जो टीवी चैनल ,,अपने पत्रकारों को ,,,अपने खर्च पर ,,,विदेश भेजते हैं ,,,उनके पास अपने पत्रकारों को ,,मणिपुर भेजने के लिए पैसे नहीं हैं।,, हैं भी तो वे मणिपुर को उतना ,,महत्वपूर्ण नहीं समझते,, जितना कि दुनिया समझती है। हमारे मुख्यधारा के,, मीडिया के लिए मणिपुर से ज्यादा ,,महत्वपूर्ण ज्ञानवापी मस्जिद का मामला है। पाकिस्तान से भारत आई सीमा हैदर का मामला है।,, भारत से पकिस्तान गयी अंजू का मामला है।,, इन मुद्दों के पीछे मीडिया की दीवानगी देखने लायक है। बेरोजगारी आज देश में चरम पर है. जीडीपी लगातार गिर रही है, इसकी बात नहीं की जा रही.

भारतीय मीडिया की प्राथमिकता

दोस्तों में आज इस दुविधा में हु,, कि मुझे या आपको ,,मीडिया की प्राथमिकताओं पर ,,हंसना चाहिए या रोना चाहिए? ,,मीडिया की प्राथमिकताओं का ,,जन पक्षधरता से,, कितना करीबी रिश्ता है,,, इसका आकलन भी मीडिया की ,,प्राथमिकताओं से किया जा सकता है। आज भारतीय मीडिया की प्राथमिकताओं के मामले में,, प्रतिस्पर्धा या तो अपने आप से है ,,या फिर सत्तारूढ़ पार्टी से।,, यदि आप नियमित टीवी देखते हैं या अखबार पढ़ते हैं ,,तो आप इस बात को आसानी से समझ सकते हैं।

सरकार की ओर से डराया-धमकाया

इसके लिए आप केवल ,,देश की सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।,, सरकार ने मीडिया के लिए भले ही,,, अपनी गोदी ,,उपलब्ध करा दी हो ,,लेकिन उसने किसी के साथ जबरदस्ती,, शायद नहीं की। मीडिया में सरकार की गोदी में सवार होने की,, स्पर्द्धा तो अपने आप शुरू हुई है। ,,,,,मीडिया न तो ढोल, गंवार, पशु और न ही जड़धि -जल, ,,जो उन्हें प्रीत सिखाने के लिए ,,भय दिखाने की जरूरत पड़े।,, मुमकिन है कि तमाम मीडिया घरानों को ,,,सरकार की ओर से डराया-धमकाया गया हो ,,,लेकिन ये भी सच है कि ,,सरकार से प्रीत कर अपनी प्राथमिकताएं बदलने वाला मीडिया,,, खुद ही बिना रीढ़ का हो चुका है

ज्ञानवापी के मुद्दे को लेकर मीडिया चिरक रहा

मीडिया बीते एक हफ्ते से ,,सीमा हैदर का दीवाना तो था ही ,,,लेकिन अब एक ओर नाम जुड़ गया है ,,अंजू ,,,तमाम संसाधन और मेधा ,,सीमा हैदर को कवर करने में खर्च हो रही है।,, संसद का हंगामा उसके लिए दूसरी प्राथमिकता है। ,,,अब ज्ञानवापी के मुद्दे को लेकर मीडिया चिरक रहा है ,,,,लेकिन मणिपुर का मुद्दा उसके लिए ,,,untouchable है,, या इतना ज्यादा संवेदनशील है,, कि ,,वो उसे चिमटे से भी नहीं छूना चाहता।,, दोस्तों ये बात केवल अखबारों और टीवी चैनलों के लिए नहीं ,,है यह इशारा सोशल मीडिया पर भी है।

यह इशारा सोशल मीडिया पर

सोशल मीडिया पर बड़े ही well planned तरीके से,,, मणिपुर को बेदखल कर ,,,सीमा हैदर को, ज्ञानवापी मस्जिद/मंदिर को बैठा दिया गया है।,,, अखबार हों या चैनल या ,,यूट्यूब चैनल या फिर रील्स , सबके ऊपर सरकारी विज्ञापनों की चादर चढ़ी है।,,, जिसके जितने लम्बे पांव हैं, उसको उतनी बड़ी चादर भेंट की गई है। ,,इसका मतलब है ,,,की ,,आप सरकारी चादर ओढ़कर लम्बी तानकर सोइये ,,और जनता को भी सोने के लिए तैयार कीजिये,, मीडिया,, ये ड्यूटी बखूबी निभा रहा है।

हर स्वरूप में पत्रकार कम कठपुतलियाँ ज्यादा

आज मीडिया के हर स्वरूप में ,,पत्रकार कम ,,कठपुतलियाँ ज्यादा हैं। उनका काम खबरें तलाशना या तराशना नहीं ,,बल्कि ,,उपलब्ध कराई गयी खबरों को,, चीख-चीखकर पढ़ना, सुनाना और छापना भर रह गया है।,, देश की सत्ता और मीडिया का main मुद्दों और जन पक्षधरता से ,,मुंह मोड़ना महज संयोग नहीं है। ,,,संयोग तो पल दो पल ठहर कर चला जाता है।,, ये तो एक साजिश है। ,,,जो अलोकतांत्रिक है।,, लेकिन ये लोकतंत्र में ही मुमकिन है।

चीन में मीडिया की ज़रूरत नहीं

तानाशाही में तो इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ती। हमारे पड़ोस में चीन है। वहाँ मीडिया की ज़रूरत ही नहीं है।,,, चीन की ही तरह ,,हमारा लोकतंत्र और मीडिया ,,धीरे धीरे ,, एकाधिकार की ओर बढ़ रहा है। ,,क्या दिखाया जाना है, क्या पढ़ाया जाना है? ,,ये मीडिया नहीं, ,,कोई और तय करने लगा है,,, 1975 में भारत में यही सब प्रयोग,, तत्कालीन केंद्र सरकार ने किये थे,, और 19 महीने बाद हुए,, आम चुनाव में इसकी सजा भी भुगती थी, ,,दुर्भाय ये है कि ,,आज की सरकार 1975 की ,,सरकार की गलतियों से,, सबक लेने के बजाय उनका ,,पीछा ,,,,करती दिखाई दे रही है

असली मुद्दे पर कोई बात नहीं की जा रही

पहले पुलवामा के नाम पर वोट मांगे गए ,,,और फिर 370 के नाम पर,, और राम मंदिर के नाम पर वोट मांगे गए,,, इसके बाद सिटीजन अमेंडमेंट बिल के नाम से ,,लोगों को भ्रमित ,,,करने की कोशिश की गई. अब समान नागरिक संहिता पर ,,बहस छेड़ने का प्रयास ,,देश के अंदर किया जा रहा है. लेकिन देश के अंदर ,,,जो असली मुद्दे हैं, ,,उन पर कोई बात नहीं की जा रही है

सरकार पर सवाल उठेगा

आप ही सोचिये अगर ,,,सीमा हैदर पाकिस्तान की जासूस,, निकल आये ,,,तो इससे देश की जनता को क्या हासिल होने वाला है? ,,,इससे भी सरकार पर सवाल उठेगा ,,, कि सीमा हैदर सरकार की तमाम घेराबंदी के बावजूद ,,,भारत में प्रवेश कैसे कर गयी?,,, मान लीजिये यदि ज्ञानवापी में कोई मंदिर निकल आये ,,,तो इससे क्या होगा, ज्यादा से ज्यादा ,,क्या मंदिर पर अतीत के मुगलों ने,,, कब्जा कर मस्जिद तान दी थी।

विज्ञापन के लिए ज्यादा काम

इन खबरों से घायल मणिपुर को तो,, मरहम मिलने वाली नहीं है। टमाटर सस्ता होने वाला नहीं है। ,,रसोई गैस के दाम कम होने वाले नहीं हैं।,,, पेट्रोल सस्ता होने वाला नहीं है।,, यानी मीडिया का कंट्रोल ,, अब सत्ता के हाथी के कान के ऊपर नहीं है, उलटे सत्ता का कंट्रोल ,, मीडिया के नाजुक कान के ऊपर टिका है,

देश का दुर्भाग्य है कि,, देश के मीडिया को गोदी में बैठाने की ,,जो पहल भाजपा की सरकारों ने की थी,, आज उसकी नकल दूसरे दलों की सरकारें भी ,,खुल्ल्मखुल्ला कर रही हैं। ,,पंजाब हो, दिल्ली हो, राजस्थान हो, छत्तीसगढ़ हो, मध्यप्रदेश हो, सब जगह मुख्यमंत्री खुद विज्ञापनों में ,,मुख्य किरदार में हैं।,,, वे सरकार के लिए कम ,,,विज्ञापन के लिए ज्यादा काम करते नजर आ रहे हैं

मीडिया का 75 फीसदी हिस्सा विज्ञापनों से ढक देते

चुनावी मौसम में तो ये सरकारें,,, ये मुख्यमंत्री और इन सबसे ऊपर ,,,प्रधानमंत्री के पास न जाने कहाँ से ,,इतना पैसा आ जाता है कि वे ,,,मीडिया का 75 फीसदी हिस्सा ,,अपने विज्ञापनों से ढक देते हैं?,, आप सुबह अखबार का पहला पन्ना देखें या ,,,किसी टीवी चैनल का समाचार, ,,या मनोरंजन का कार्यक्रम ,,,आपको सबसे पहले मुस्कराते हुए प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री दिखाई देंगे। ,,,

इस लोकतंत्र में किसी भी दल की कैसी भी सरकार हो,,, यानी जनादेश से बनी हो ,,या धनादेश से। ,,इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ,,सबका एक ही चरित्र है ,,और एक ही लक्ष्य है ,,,कि,, देश के मीडिया को पालतू कुत्ता बनाओ।,,, गले में जंजीर डालो,,, दरवाजे के बाहर बाँध दो।,, खूबसूरत पात्रों में लजीज खाना खाने को दो ,,और उसको चोर, उच्चकों और सेंधमारों को ,,,देखकर भौंकना भुला दो।,,

मीडिया का ऊपर वाला ही मालिक

एक जमाने में मीडिया को ‘वाच डॉग’ के मुहावरे के तौर पर कहा जाता था ,,,लेकिन आज का मीडिया सचमुच का पालतू ,,कुत्ता बन गया है। ,,,आदमी चाहे तो कुछ भी कर सकता है ,,और सरकार के लिए तो कुछ भी नामुमकिन है,, ही नहीं। आजकल तो बिलकुल नहीं। आज का तो मुहावरा ही है की,,- ‘साहब है तो मुमकिन है’। ,,ऐसे में मीडिया का ऊपर वाला ही मालिक है। ,,जंगल में रोती स्त्री हो या शेर, कोई उसकी सुनने वाला नहीं होता। ,,आज मणिपुर की ही नहीं, ,,बल्कि पूरे देश की यही दशा है।,,,

और हमें आज भी उम्मीद है कि ‘अच्छे दिन’ आएंगे।,, हमारा आशावाद ही ,,हमारी असली पूंजी है। ,,बाक़ी तो सब सरकार ने छीन ही लिया है। ,,आशा पर ही आसमान टिका है,, इसलिए हम जैसे लोग, आप जैसे लोग भी,, इसी उम्मीद के सहारे ,,,आने वाले अच्छे-बुरे दिनों के,, लिए खुद को तैयार कर रहे हैं।,, आपकी इस पर क्या राय है हमे कमेन्ट कर जरूर बताएँ

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