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Rewari Culture Politics: Himachal Pradesh को Rewari Politics ले डूबी! CM Sukhu

CM Sukku

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Rewari Culture Politics: दोस्तों चुनावी सीजन चल रहा है कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने है महाराष्ट्र (Maharashtra Assembly election), हरियाणा (Haryana Assembly election) , जम्मू कश्मीर (J&K Assembly election) , बिहार (bihar Assembly election),  दिल्ली (Delhi Assembly election) मे चुनाव होने है और आपको तो पता है चुनावों के वक्त लोक लुभावन योजनाओ की बारिश होती है सभी (CM Sukhu) पार्टी भर भर के (Rewari Politics) फ्री रेवड़िया (Himachal Pradesh) बाटती है और फिर राज्य को कर्ज में डूबा देती है कर्ज में यहाँ तक नोबत आ जाती है की मंत्रियों को अपनी सैलरी छोड़नी पड़ती है

CM Sukhu, मंत्री और संसदीय सचिव नहीं लेंगे सैलरी

पहाड़ों से घिरे हिमाचल प्रदेश पर कर्ज का पहाड़ बढ़ता जा रहा है. आर्थिक सेहत इतनी बिगड़ती जा रही है कि अगले दो महीने तक मुख्यमंत्री मंत्री मुख्य संसदीय सचिव और बोर्ड निगमों के चेयरमैन सैलरी और भत्ते नहीं लेंगे. मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने गुरुवार को बताया कि प्रदेश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है इसलिए वो और उनके मंत्री दो महीने के लिए सैलरी और भत्ता छोड़ रहे हैं.हिमाचल में करीब ढाई साल पहले आई कांग्रेस सरकार लगातार कर्ज में डूब रही है. हिमाचल के आर्थिक संकट की वजह सरकार की तरफ से बांटी जा रही फ्रीबीज को जिम्मेदार माना जा रहा है. ढाई साल पहले हुए विधानसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस ने मुफ्त की कई योजनाओं का वादा किया था. सरकार बनने पर इन वादों को पूरा किया जिसने कर्जा और बढ़ा दिया.

RBI की रिपोर्ट के मुताबिक

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल में कांग्रेस के सत्ता में आने से पहले मार्च 2022 तक 69 हजार करोड़ रुपये से कम का कर्ज था. लेकिन उसके सत्ता में आने के बाद मार्च 2024 तक 86600 करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज हो गया. मार्च 2025 तक हिमाचल सरकार पर कर्ज और बढ़कर लगभग 95 हजार करोड़ रुपये का हो जाएगा.

हिमाचल सरकार के बजट का 40 फीसदी तो सैलरी और पेंशन देने में ही चला जाता है. लगभग 20 फीसदी कर्ज और ब्याज चुकाने में खर्च हो जाता है.सुक्खू सरकार महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये देती है जिस पर सालाना 800 करोड़ रुपये खर्च होता है. ओल्ड पेंशन स्कीम भी यहां लागू कर दी गई है जिससे एक हजार करोड़ रुपये का खर्च बढ़ा है. जबकि फ्री बिजली पर सालाना 18 हजार करोड़ रुपये खर्च होता है. इन तीन स्कीम पर ही सरकार लगभग 20 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रही है.

हिमाचल सरकार को और झटका तब लगा जब केंद्र सरकार ने कर्ज लेने की सीमा को और कम कर दिया. पहले हिमाचल सरकार अपनी जीडीपी का 5 फीसदी तक कर्ज ले सकती थी. लेकिन अब 3.5 फीसदी तक ही कर्ज ले सकती है. यानी पहले राज्य सरकार 14500 करोड़ रुपये तक उधार ले सकती थी लेकिन अब 9 हजार करोड़ रुपये ही ले सकती है.आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि हिमाचल पर पांच साल में 30 हजार करोड़ रुपये का कर्ज बढ़ा है. अभी 86 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज है. हिमाचल में हर व्यक्ति पर 1.17 लाख रुपये का कर्ज है.

सैलरी न लेने पर कितना पड़ेगा फ़र्क ?

हिमाचल में मुख्यमंत्री मंत्री और संसदीय सचिव अगर दो महीने की सैलरी-भत्ते नहीं लेते हैं तो उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. ये ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ वाली बात होगी.मुख्यमंत्री को हर महीने ढाई लाख रुपये सैलरी और भत्ते के रूप में मिलते हैं. दो महीने में हुए 5 लाख. हिमाचल सरकार में 10 मंत्री हैं और इन्हें भी हर महीने ढाई लाख रुपये मिलते हैं. दो महीने में इन मंत्रियों की सैलरी और भत्ते पर खर्च होते हैं 50 लाख रुपये. 6 संसदीय सचिव हैं जिन्हें भी महीने के ढाई लाख रुपये मिलते हैं. 6 संसदीय सचिवों की दो महीने की सैलरी-भत्ते पर 30 लाख रुपये खर्च होते हैं. यानि कुल 85 लाख रुपये की बचत होगी. जबकि हिमाचल सरकार पर मार्च 2025 तक लगभग 95 हजार करोड़ रुपये का कर्ज होगा.

कर्ज बढ़ने का क्या है कारण ?

सिम्पल सी कैल्क्यलैशन है  कमाई कम और खर्च ज्यादा है तो कर्ज लेना पड़ेगा. लेकिन खर्च और कर्ज का प्रबंधन सही तरीके से नहीं किया गया तो हालात ऐसे हो सकते हैं कि न तो कमाई का कोई जरिया बचेगा और न ही कर्ज लेने के लायक बचेंगे.राज्य सरकारों पर कर्जा लगातार बढ़ता जा रहा है. सरकारें सब्सिडी के नाम पर फ्रीबीज पर बेतहाशा खर्च कर रही हैं. आरबीआई की एक रिपोर्ट बताती है कि राज्य सरकारों का सब्सिडी पर खर्च लगातार बढ़ रहा है. राज्य सरकारों ने सब्सिडी पर कुल खर्च का 11.2% खर्च किया था जबकि 2021-22 में 12.9% खर्च किया था.

जून 2022 में ‘स्टेट फाइनेंसेसः अ रिस्क एनालिसिस’ नाम से आई आरबीआई की इस रिपोर्ट में कहा गया था कि अब राज्य सरकारें सब्सिडी की बजाय मुफ्त ही दे रही हैं. सरकारें ऐसी जगह खर्च कर रही हैं जहां से कोई कमाई नहीं हो रही है. आरबीआई के मुताबिक 2018-19 में सभी राज्य सरकारों ने सब्सिडी पर 1.87 लाख करोड़ रुपये खर्च किए थे. ये खर्च 2022-23 में बढ़कर 3 लाख करोड़ रुपये के पार चला गया था. इसी तरह से मार्च 2019 तक सभी राज्य सरकारों पर 47.86 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था जो मार्च 2024 तक बढ़कर 75 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया. मार्च 2025 तक ये कर्ज और बढ़कर 83 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा होने का अनुमान है.फ्रीबीज का कल्चर कैसे सरकार को घुटने पर ला सकता है हिमाचल इसका बहुत बड़ा उदाहरण है. अभी तो मुख्यमंत्री मंत्रियों और संसदीय सचिवों ने दो महीने की सैलरी-भत्ते छोड़े हैं. हो सकता है कि हालात और बिगड़ें.

इन राज्यों पर भी है कर्जा

पिछले साल आरबीआई ने चेतावनी दी थी कि गैर-जरूरी चीजों पर खर्च करने से राज्यों की आर्थिक स्थिति बिगड़ सकती है. इस रिपोर्ट में आरबीआई ने चेताया था कि अरुणाचल प्रदेश बिहार गोवा हिमाचल केरल मणिपुर मेघालय मिजोरम नागालैंड पंजाब राजस्थान और पश्चिम बंगाल पर आर्थिक खतरा मंडरा रहा है.आरबीआई का कहना है कि कुछ राज्य ऐसे हैं जिनका कर्ज 2026-27 तक GSDP का 30% से ज्यादा हो सकता है. इनमें पंजाब की हालत सबसे खराब होगी. उस समय तक पंजाब सरकार पर GSDP का 45% से ज्यादा कर्ज हो सकता है. वहीं राजस्थान केरल और पश्चिम बंगाल का कर्ज GSDP के 35% तक होने की संभावना है. ज्यादा कर्ज होने से पैसा सही जगह पर खर्च नहीं हो पाता. सरकारें ऐसे डेवलपमेंट प्रोजेक्ट पर पैसा खर्च नहीं कर पाती जिससे भविष्य में आमदनी हो सके. उदाहरण के लिए पंजाब अपने कुल खर्च का 22 फीसदी से ज्यादाब्याज चुकाने में खर्च कर देता है. हिमाचल का भी 20 फीसदी खर्च ब्याज और कर्ज चुकाने में चला जाता है. इससे कैपिटल एक्सपेंडिचर में कमी आ जाती है.

चुनावी राज्यों में इस तरह ‘मुफ्त बांटने’ की योजनाएं आम बात है. विरोध करने वाले इन्हें ‘फ्रीबीज’ और ‘रेवड़ी कल्चर’ कहते हैं तो समर्थन वाले इन्हें ‘कल्याणकारी योजनाएं’ बताते हैं. विरोध करने वालों का अक्सर कहना होता है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ पड़ेगा कर्जा बढ़ेगा और सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए ऐसा किया जा रहा है. तो ऐसी योजनाएं लाने वाले कहते हैं कि इसका मकसद गरीब जनता को महंगाई से राहत दिलाना है. खास बात ये है कि एक पार्टी जिस तरह की योजना को एक राज्य में रेवड़ी कल्चर कहती है वही दूसरे राज्य में उसे कल्याणकारी योजना कहकर लागू कर रही होती है. क्या फ्रीबीज और सरकार की कल्याणकारी योजनाएं एक ही हैं या अलग-अलग? आमतौर पर फ्रीबीज का ऐलान चुनाव से पहले किया जाता है जबकि कल्याणकारी योजनाएं या वेलफेयर स्कीम्स किसी भी समय लागू कर दी जाती हैं.राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए वादों की बौछार तो कर देती हैं लेकिन इसका बोझ सरकारी खजाने पर पड़ता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि टैक्सपेयर के पैसे का इस्तेमाल कर बांटी जा रहीं फ्रीबीज सरकार को ‘दिवालियेपन’ की ओर धकेल सकती हैं.दिल्ली सरकार आम आदमी पार्टी जो कहती है की फ्री बाटने के बाद भी हमारे पास बजट पूरा है हमे कमी नहीं होती फ्री रावड़ी देने के बाद भी बच जाता है लेकिन जैसे ही कोई कमी पकड़ी जाए फट से कह देते है हमे फंड नहीं मिल रहा  अब चुनाव है फिर से बड़ी बड़ी घोषणाएँ की जाएगी फ्री रेवड़ियों की बारिश का दोर फिर शुरू होने वाला है खैर प्राकृतिक बारिश ने तो सरकार की नायक में दम कर ही रखा है सरकार की पोल खोल कर रख दी है आपकी इसपर क्या राय है हमे कमेन्ट कर जरूर बताएँ

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