Budget Session: ‘पांच साल में कम हुई बेरोजगारी’, वित्त मंत्री ने बताए ये आंकड़े
Budget Session: दोस्तों एक फरवरी को संसद में बजट पेश किया गया भारत के इतिहास का संभवतः पहला ऐसा बजट है जिसमें ठीक चुनाव के पहले लाये जाने के बावजूद जनता के किसी भी हिस्से को किसी भी तरह की राहत नहीं दी गयी बजट पर चर्चा के दौरान वित्त मंत्री ने बताया की पांच साल में बेरोजगारी कम हुई है,
भाजपा सरकार मानती है कि मोदी जी जो कहें वही सत्य है। अगर साक्ष्य दूसरी ओर इशारा करें तो साक्ष्य ही गलत होंगे और ऐसे साक्ष्यों को दफ्न ही कर देना अच्छा है । मोदी जी कहते हैं कि उनकी सरकार के पिछले दस साल जितना खुशहाल यह देश कभी नहीं था। लेकिन, खुद सरकारी आंकड़े चूंकि उनकी इस बात को काटते हैं तो ये आंकड़े ही गलत होने चाहिए और पूरी की पूरी आकडे की व्यवस्था को ही बदल दिया जाना चाहिए।
वित्त मंत्री ने बताए ये आंकड़े
वित्त मंत्री ने बताया कि हमारे देश में श्रमबल 2017-18 में 49.8 से बढ़कर 2022-23 में 57.9% हो गया है जिसमें लगभग 8.1% की वृद्धि दर्ज की गई है। उन्होंने बताया कि देश का कार्यबल (वर्क फोर्स) जो 2017-18 में 46.8% था वह वर्ष 2022-23 में 9.2% बढ़कर 56% हो गया। लोकसभा में बोलते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बेरोजगारी से जुड़े आंकड़े भी बताए। उन्होंने कहा कि 2017-18 में बेरोजगारी दर 6% थी, जो 2022-22 में कम होकर 3.2% रह गई है।
दोस्तों विकासशील दुनिया की बेहतरीन आकडे प्रणालियों में से एक को जिसे बड़ी मेहनत से तथा सावधानी से खड़ा किया गया था नष्ट किया जा रहा है। पीसी महलनबीस ने जिस राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण को स्थापित किया था उसे उपभोक्ता खर्च का डाटा एकत्र करने के मामले में ,,त्याग ही दिया गया है। ऐसा इसलिए किया गया कि 2017-18 का सर्वे यह दिखा रहा था कि 2011-12 की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र में सभी मामलों व सेवाओं के प्रतिव्यक्ति उपभोग में वास्तविक मूल्य के पैमाने से सत्यानाशी गिरावट आयी थी
इसी प्रकार, जो जनगणना दशकों से आजादी से भी पहले से चली आ रही थी उसे भी त्याग दिया गया है कि कहीं उससे मोदी के दावों का खोखलापन उजागर नहीं हो जाए। इसी प्रकार, बेरोजगारी के वर्तमान संकट को धुंध के पीछे छुपाने की बेशर्म कोशिश में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की इस बुनियादी परिभाषा को ही त्याग दिया गया है कि बिना भुगतान के काम को रोजगार के तौर पर नहीं गिना जाना चाहिए।
वास्तव में बिना भुगतान के काम को ही नहीं सारे भुगतान के कामों को भी रोजगार में नहीं गिना जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर 1930 के दशक की महामंदी के दौरान ब्रिटेन में बहुत सारे बेरोजगारों ने सडक़ों के किनारे बैठकर बूट पालिश करना शुरू कर दिया था। जाहिर है कि ये लोग कोई मुफ्त में ग्राहकों के जूतों पर पालिश नहीं कर रहे थे। लेकिन, अगर उन्हें रोजगारशुदा लोगों में गिन लिया जाता तो उस अभूतपूर्व संकट के दौरान भी बेरोजगारी काफी कम नजर आने लगती। इसी तरह की स्थितियों के लिए छद्म बेरोजगारी या डिसगाइस्ड अनएंप्लायमेंट की संज्ञा ईजाद की गयी थी। लेकिन, यह किस्सा तो एक ऐसे समाज का था जो अपने संकट को गंभीरता से लेता था। दुर्भाग्य से आज के भारत में अमृतकाल में ऐसा नहीं है।
सच्चाई को ही नकारने का खेल, खेल रही सरकार
अगर मोदी जी की घोषणाओं को ही सत्य मान लिया गया है तो हैरानी नहीं होनी चाहिए कि बजट पहले से जो चल रहा था उसी को दोहराने की कसरत भर बनकर रह गया है। सरकार और मीडिया द्वारा इसको बताया ही नहीं जाएगा वे इन तथ्यों को नहीं बताएंगे क्योंकि ‘‘सुप्रीम लीडर’’ ने इन समस्याओं के अस्तित्व को ही नकार दिया है। वित्त मंत्री द्वारा 1 फरवरी को संसद में पेश किए गए अंतरिम बजट की पूरी की पूरी कसरत ही इसी बात की पुष्टि करती है।
दोस्तों आप वित्त मंत्री के भाषण को ही ले लीजिए। उन्होंने यह बेढब एलान कर दिया कि देश की औसत वास्तविक आय 50 फीसद बढ़ गयी है। हम मान सकते हैं कि यह दावा पिछले एक दशक के दौरान यह बढ़ोतरी होने का ही है लेकिन, यह आंकड़ा तो महज प्रतिव्यक्ति आय का है, न कि आबादी के अधिकांश हिस्से की आय का। और अकेले इसी आंकड़े को देश की आर्थिक खुशहाली के साक्ष्य के रूप में उद्धत करना, सरकार की बेईमानी को ही दिखाता है।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि 2011-12 और 2017-18 के बीच देश में और खासतौर पर ग्रामीण भारत में, पोषणगत गरीबी में बढ़ोतरी ही दर्ज हुई थी। 2200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन आहार तक पहुंच, जिसे पहले योजना आयोग द्वारा गरीबी को परिभाषित करने का पैमाना माना जाता है, से वंचित ग्रामीण आबादी का अनुपात उस दौरान 68 से बढक़र 80 फीसद पर पहुंच गया था! इसलिए, यह तो किसी भी तरह से कहा ही नहीं जा सकता है कि देश की जनता का अधिकांश हिस्सा उक्त अवधि में पहले से ज्यादा खुशहाल हो गया था। लेकिन सवाल यह है कि उसके बाद से क्या हुआ है?
ख़ुशहाली के एलान, बदहाली की हक़ीक़त
जैसा कि हमने बताया अब हमारे पास उपभोक्ता खर्च पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का पांच साल का आंकड़ा रह ही नहीं गया है। फिर भी कुछ और आंकड़े हैं जिनका सहारा लिया जा सकता है। और दो अन्य महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं जिनका उपयोग बहुत से लोग करते रहे हैं। इनमें एक तो यही है कि पिछले पांच साल में ग्रामीण वास्तविक मजदूरी में जिसमें कृषि कार्यों में मजदूरी तथा गैर-कृषि कार्यों में मजदूरी दोनों ही शामिल हैं, बढ़ोतरी नकारात्मक रही है यानी गिरावट ही हुई है। शहरी वास्तविक मजदूरी के बारे में भी यही सच है।
वास्तव में ताजातरीन पीरिओडिक लेबर फोर्स सर्वे दिखाता है कि समग्रता में पूरे देश को लें तो औसत नियमित मासिक मजदूरी में जिसमें शहरी और ग्रामीण इलाके दोनों शामिल हैं,, 2017-18 और 2022-23 के बीच पूरे 20 फीसद गिरावट हुई है! इसलिए, 2017-18 से वास्तविक मजदूरी में गिरावट होने पर तो कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए।
दूसरा साक्ष्य यह है कि आज बेरोजगारी का संकट आजादी के बाद अपने सबसे विकराल रूप में मौजूद है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनमी के आंकड़े दिखाते हैं कि कुल रोजगारों की संख्या में पिछले पांच साल में शायद ही कोई बढ़ोतरी हुई है। अब जबकि वास्तविक मजदूरी में गिरावट हो रही है और रोजगार में वृद्धि में गतिरोध बना हुआ है मजदूरी का काम करने वाली आबादी की प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय तो वास्तव में गिरावट पर ही होगी। पिछले पांच साल में देश की आबादी के बहुमत की जीवन-दशा बद से बदतर ही हुई है।
इसके साथ उस तथ्य को और जोड़ लें जो हमने पहले आपको बताया है कि राष्ट्रीय नमूना सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, 2011-12 और 2017-18 के बीच आबादी के बहुमत के वास्तविक खर्च में गिरावट दर्ज हुई थी। तब हम इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि कुल मिलाकर मोदी के राज के दौरान देश की आबादी के बहुमत की जीवन-दशा बदतर ही हुई है।
अंतरिम बजट या तर्क का शीर्षासन
दोस्तों आखिर क्या वजह है कि भाजपा की बड़े पूंजीपतियों और खासतौर पर चुनिंदा दरबारी पूंजीपतियों की सरपरस्ती के बावजूद मोदी राज में निजी निवेश में गतिरोध ही बना रहा है। वास्तव में सिर्फ निजी गैर-कारपोरेट निवेश में ही गतिरोध या गिरावट की स्थिति नहीं बनी रही है। उसके निवेश में गतिरोध में किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस क्षेत्र को नोटबंदी, जीएसटी और महामारी की पृष्ठभूमि में थोपे गए दमनकारी लॉकडाउन के रूप में बहुत भारी प्रहार झेलने पड़े हैं।
पर मोदी राज में तो कारपोरेट निवेशों में भी गतिरोध बना रहा है, जबकि इस दौर में कारपोरेटों के मुनाफे तेजी से ऊपर चढ़ते गए हैं। यह इसी सच्चाई को दिखाता है कि कारपोरेट निवेश बाजार की वृद्धि को देखकर चलते हैं न कि उन्हें हासिल हुए मुनाफों को देखकर। दोस्तों बेशक, सरकार की ओर से यह दलील दी जाएगी और वास्तव में वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में यही दलील दी भी है कि वह बजट-दर-बजट पूंजी खर्च बढ़ाती गयी हैं और इस तथ्य से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निजी पूंजीपतियों के लिए बाजारों में बढ़ोतरी होनी चाहिए और इसलिए उनकी ओर से निवेश में बढ़ोतरी होनी चाहिए।
कुल मिलाकर इस बजट में राहत की बजाय आफत हैं विकास की संभावना की जगह विनाश की आशंकाएं हैं भारत के लिए नाउम्मीदें हैं, चुनाव जब कुछ सप्ताह दूर है तब भी इस तरह के बजट को लाने की हिम्मत कहां से आती है? एक तो उन्हें जिनकी वे जान की बाजी लगाकर सेवा कर रहे हैं उन कार्पोरेट्स के कब्जे वाले मीडिया पर पूरा विश्वास है कि वह ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ के वृन्दगान के शोर में इस बजट की असलियत सामने आने ही नहीं देगा; सूखे को हरियाला सावन, पतझर को बसंत और अकाल मौत को त्वरित मोक्ष साबित कर देगा।
दोस्तों रोजगार के मोर्चे पर यह स्थिति भारत के लिए दुखद है इस साल होने वाले चुनाव में पार्टियों के एजेंडे में रोजगार सर्वोपरि होना चाहिए। आपकी इस पर क्या राय है हमे कमेन्ट कर जरूर बताएँ