UPSC Lateral entry : मजबूत से मजबूर हुई मोदी सरकार!
UPSC Lateral entry : मोदी सरकार मजबूत की जगह अब मजबूर सरकार दिखाई दे रही है 10 साल तक जिस सरकार ने जो फैसला लिया उसको पूरी ताकत से लागू किया लेकिन मोदी 3.o की सरकार बनने के बाद 2 महीने के अंदर 3 बड़े फैसले पर मोदी जी को झुकना पड़ा बैक फुट पर आना पड़ा ,, जब से मोदी सरकार को बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा तब से उनकी चाल ही बदल गई विपक्ष ने मोदी जी की मन की बात बंद कर दी है और अब होगी काम की बात आखिरकार मोदी जी को अब सविधान की याद आ गई
मजबूत से मजबूर मोदी सरकार!
दोस्तों मोदी सरकार का आपको दूसरा कार्यकाल तो याद ही होगा जब किसान दिल्ली को घेर कर कई महीने बैठे रहे पर सरकार टस से मस नहीं हुई. बहुत बाद में सरकार ने 3 कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया. शाहीन बाग का धरना भी याद होगा पर सरकार ने झुकने का फैसला नहीं लिया . सीएए कानून जरूर कुछ दिनों के लिए टाल दिया गया पर कानून वापस नहीं लिया गया.लेकिन अब मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में एक के बाद के फैसले वापस लिए जा रहे है यूपीएससी के जरिए लेटरल एंट्री से नियुक्ति के मामले में केंद्र सरकार ने यूटर्न ले लिया है. यह हाल ही में तीसरा ऐसा मौका है जब सरकार को विपक्ष के दबाव में अपने किसी फैसले को वापस लेना पड़ा. इससे पहले सरकार वक्फ बिल और ब्रॉडकास्टिंग बिल पर भी ऐसा कर चुकी है.
विभिन्न मंत्रालयों में सचिव उपसचिव और निदेशक के लिए सीधी भर्ती यानी ‘लेटरल एंट्री’ को आखिरकार सरकार ने रोक दिया है। पिछले हफ्ते चौबीस मंत्रालयों में ऐसे पैंतालीस पदों पर भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग ने विज्ञापन निकाला था जिसे उसने अब रद्द कर दिया है। विपक्ष ने आरोप लगाया था कि सरकार इस तरह अपने पसंदीदा लोगों को भर्ती करना चाहती है। इससे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति और पिछड़े समुदाय के लोगों के लिए संविधान में मिले आरक्षण के प्रावधान का उल्लंघन होगा। इस मसले पर सरकार के सहयोगी दलों ने भी विरोध में आवाज उठानी शुरू कर दी थी।दो दिन तक इसके अलग-अलग पक्षों पर खूब बहस हुई। अब सरकार ने यूपीएससी को पत्र लिख कर कहा है कि इन भर्तियों में भी सामाजिक न्यायका ध्यान रखा जाना जरूरी है। जाहिर है इसे विपक्ष अपनी विजय के रूप में रेखांकित कर रहा है मगर हकीकत यह है इसे सत्तापक्ष की पराजय नहीं कहा जा सकता। सत्तापक्ष ने केवल पैंतरा बदला है। यूपीएससी को लिखी कार्मिक मंत्रालय की चिट्ठी से जाहिर है कि सीधी भर्तियां तो होंगी मगर आरक्षण का ध्यान रखते हुए। ऐसे में इस सवाल का जवाब शायद ही मिल पाए कि आखिर मंत्रालयों में इतने बड़े पैमाने पर बाहर के लोगों की सीधी भर्ती का औचित्य क्या है!
UPSC Lateral entry पर रोक
लैटरल एंट्री के जरिए उच्च पदों पर होने वाली भर्तियां पूर्णतया असंवैधानिक हैं। इनमें आरक्षण क्यों लागू नहीं है? क्या नरेंद्र मोदी सरकार मानती है कि दलित आदिवासी और पिछड़े समाज के लोग देश के लिए नीतियां बनाने में सक्षम नहीं हैं? 2018 में जब लैटरल एंट्री शुरू की गई थी उस समय यह तर्क दिया गया था कि नीति निर्धारक पदों पर विशेषज्ञों को भर्ती किया जा रहा है। विशेषज्ञों के नाम पर ज्यादातर पूंजीपति घरानों के टेक्नोक्रेट और प्रबंधकों को बिठा दिया गया। लेटरल एंट्री के जरिये होने वाली नियुक्तियों पर आज तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं।पहला सवाल तो यह है कि पूंजीपति घरानों के टेक्नोक्रेट और प्रबंधक किसानों मजदूरों दलितों आदिवासियों के लिए कैसी नीतियां बनाएंगे यह समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। उच्च वर्ग से आने वाले ये कथित विशेषज्ञ क्या कमजोर वंचित समाज के हितों में नीतियां बना सकते हैं? पिछले छह साल में इन विशेषज्ञों ने गरीबों के उत्थान लिए कौन सी लाभकारी नीतियां बनाई हैं?
अगली भर्तियां करने से पहले क्या सरकार को यह नहीं बताना चाहिए कि कथित मेरिटधारी सवर्ण विशेषज्ञों ने देश के लोगों को और खासकर गरीबों-वंचितों के उत्थान के लिए क्या योगदान किया है? पूछा यह भी जाना चाहिए कि पिछले आठ साल में देश के भीतर असमानता की खाई इतनी चौड़ी कैसे हो गई? 81 करोड लोगों को 5 किलो राशन क्यों दिया जा रहा है? इसका मतलब है कि देश की सबसे बड़ी आबादी कमाकर खाने की स्थिति में नहीं हैं। क्यों इतने लोग आज पेट भरने के लिए सरकारी योजनाओं पर निर्भर हैं?
क्या विशेषज्ञ गरीबों के लिए यही नीतियां बना रहे हैं? इन विशेषज्ञों की नीतियों का लाभ किसे मिल रहा है? लैटरल एंट्री के जरिए सेबी की अध्यक्ष बनीं माधबी पुरी बुच इसका सटीक उदाहरण हैं। विदित है कि सेबी अध्यक्ष माधबी बुच पहली गैर-आईएएस हैं जिन्हें इस पद पर नियुक्त किया गया है। माधबी बुच और अडानी के बीच मिलीभगत का खुलासा हो चुका है। हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि माधबी बुच और उनके पति धवल बुच ने अडानी की कंपनियों में निवेश करके लाभ कमाया है। जबकि अडानी के शेयर घोटाले के आरोप की जांच माधबी पुरी बुच को सौंपी गई थी। क्या माधबी बुच अडानी के आरोपों की जांच न्यायपूर्ण ढंग से कर सकती हैं?
काँग्रेस के दबाव से झुकी सरकार
इसके साथ ही डॉ जितेंद्र सिंह ने पीएम मोदी का महिमामंडन करते हुए उन्हें आरक्षण का रक्षक और चैंपियन बताया। हालांकि भाजपा पहले यह कहकर ऐसी नियुक्तियों का समर्थन कर रही थी कि यह प्रस्ताव 2005 में कांग्रेस लाई थी। लेकिन भाजपा यह सबूत पेश नहीं कर पाई कि क्या इसे कांग्रेस ने लागू कर दिया था। दरअसल इसे लागू भी मोदी सरकार ने 2018 में किया। अभी तक केंद्र में 57 अधिकारी लैटरल एंट्री से आकर काम कर रहे हैं। जब ये नियुक्तियां हुई थीं तो उस समय भाजपा के पास अपने दम पर पूर्ण बहुमत था। लेकिन अब मोदी सरकार बैसाखियों पर है।
मोदी के ‘हनुमान’ चिराग पासवान और बिहार के ही दूसरे दलित नेता जीतन राम मांझी ने लैटरल एंट्री पर नाखुशी जाहिर की है। चिराग का कहना है कि वे नरेन्द्र मोदी से इस संदर्भ में चर्चा करेंगे। जबकि इंडिया गठबंधन के तमाम नेताओं ने इसकी तीखी आलोचना की है। मल्लिकार्जुन खड़गे अखिलेश यादव और मायावती ने खुलकर लैटरल एंट्री के जरिए की जाने वाले नियुक्तियों की आलोचना की है। खड़गे ने इसे आरक्षण पर दोहरा हमला बताते हुए संघ और मोदी के संविधान बदलने की कोशिश के तौर पर रेखांकित किया है।
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद देश की सभी संस्थाओं में आरएसएस के लोगों का कब्जा हो गया। आज न्यायपालिका से लेकर सेना के रिटायर्ड तमाम अधिकारी खुलकर ऐलान कर चुके हैं कि वे आरएसएस से जुड़े रहे हैं। जबकि आरएसएस को असंवैधानिक गतिविधियों के कारण तीन बार प्रतिबंधित किया गया है। उस संस्था के लोग आज देश के हर संस्थान में काबिज हैं। अब नीति निर्धारक ब्यूरोक्रेसी में भी लैटरल एंट्री के जरिए अपने लोगों को बिठाया जा रहा है। प्रमोशन के जरिए वे लोग संयुक्त सचिव जैसे पदों पर पहुंचेंगे और नीति निर्धारण का काम करेंगे। इसीलिए लैटरल एंट्री के जरिए उनका रास्ता रोकना और नीति निर्माण में अपने लोगों को स्थापित करना इसका मूल उद्देश्य है। लेकिन विपक्ष के हमलावर रुख और एनडीए के साथियों के विरोध के बाद लैटरल एंट्री का रास्ता आसान नहीं रह गया है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अगर नरेंद्र मोदी चार सौ सीटें जीत गए होते तो देश की नीतियों और नियुक्तियों का क्या हाल होता? अच्छी बात है कि सरकार ने सीधी भर्ती की प्रक्रिया पर विराम लगा दिया है मगर उससे ठहर कर इस पर भी विचार करने की अपेक्षा की जाती है कि नियमित प्रशासनिक अधिकारियों की योग्यता और अपेक्षाओं का पारदर्शिता के साथ मूल्यांकन हो।
लेटरल एंट्री पर सरकार के यूटर्न के बाद सवाल उठ रहे हैं कि आखिर सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरी है जो उसे लगातार अपने ही फैसलों पर पीछे हटना पड़ रहा है.माना जा रहा है आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए सरकार कोई जोखिम उठाने के मूड में नहीं है. दरअसल विपक्ष ने लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण को जिस तरह से मुद्दा बनाया था उसे वह लगातार हवा दे रहा है. जम्मू कश्मीर और हरियाणा में चुनाव का ऐलान हो चुका है. साल के अंत तक महाराष्ट्र और झारखंड में भी चुनाव हैं. ऐसे में सरकार किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहती. हालांकि यह कहना पूरी तरह से गलत होगा कि लेटरल नियुक्ति से आरक्षण खत्म हो जाएगा लेकिन विपक्ष इस पर जिस तरह से हमलावर था उससे वह एक बार फिर लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब रहा जबकि सरकार ऐसा नहीं कर सकीखैर आपकी मोदी जी के यू टर्न पर क्या राय है हमे कमेन्ट कर जरूर बताएँ